मुनस्यारी के तीन गांवों में बादल फटने से तबाह हुये एक दर्जन से अधिक मकानों ने एक बार फिर पहाड़ में सुरक्षित जीवन पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। इन हादसों के बाद विशेषज्ञ जिस तरह के संकेत देते हैं उनके अनुसार पहाड़ में पत्थर और गारे से बने मकान सुरक्षित नहीं हैं। ऐसे में सैकड़ों वर्षो से बसे गांवों के मकानों को भी दुबारा सुरक्षित बनाने की जरूरत महसूस हो रही है।
लेकिन सवाल यह भी है कि इतने वर्षो से ये घर सुरक्षित थे अब खतरनाक क्यों हुए है दरअसल में समूचा पहाड़ भूगर्भीय दृष्टि से संवेदनशील है। बर्तमान समय में सारे हिमालयन क्षेत्र में बन रहे निर्माण कार्य वहा कि भौगोलिक परिस्थिती के अनुरूप नहीं हो रहे है जहा पहाड़ कमजोर है वही भरी भरकम निर्माण कार्य चल रहे है चाहे वो सरकार द्वारा स्थापित परियोजना हो या सरकारी निर्माण कार्य कमजोर पहाड़ी को काट कर निर्माण करने से वो क्षेत्र और कमजोर होता जा रहा है पहले जहा समूचे पहाड़ में घने जंगल थे वही अब जंगलो में पेडो की सघनता घटी है वही मानव का हस्तक्षेप बदता जा रहा है
भूकंप के लिहाज से सीमान्त जनपद पिथोरागढ़ जोन फाइव में आता है, वहीं पिछले पांच दशकों में हुई बादल फटने और भूस्खलन की घटनाओं ने इसकी संवेदनशीलता और बढ़ा दी है। सरकारी सर्वे के अनुसार इस समय जनपद में कुल 338 गांव संवेदनशील हैं। इसमें से 60 गांव अतिसंवेदनशील की श्रेणी में रखे गये हैं। वर्ष 1998 में मालपा में हुई भूस्खलन की विनाशकारी घटना सहित दो दर्जन से अधिक भूस्खलन की घटनाओं में अब तक (ला, चचना और रूनीतोला) 368 जानें जा चुकी हैं। जबकि जमीन दरकने के कारण डीडीहाट, मुनस्यारी व धारचूला विकासखंडों में सैकड़ों मकान रहने लायक नहीं रह गये हैं।
वर्ष 2007 में हुये भूस्खलन के कारण डीडीहाट के नया बस्ती, जौरासी और ओगला में 60 से अधिक मकान पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गये थे। मुनस्यारी के रायाबजेता, क्वीरीजिमियां व साईपोलो सहित कई गांवों में पुनर्वास नहीं होने से लोग आज भी जान की बाजी लगाकर रह रहे हैं। पिछले वर्षो में बादल फटने के कारण हो रहे हादसों ने ग्रामीणों को दहशतजदा कर दिया है। परंतु सैकड़ों वर्षो पूर्व गधेरों के किनारे और पहाडि़यों को काटकर बसाये गये गांवों के दरकने का सिलसिला शुरू होने से विशेषज्ञों को भी चिंतित कर दिया है। अधिकांश विशेषज्ञ भारी वर्षा के दौरान भूस्खलन की घटनाओं के लिये विकास के लिये किये गये विस्फोटों को भी जिम्मेदार बता रहे हैं।
मौसम विभाग के निदेशक डा. आनंद शर्मा का कहना है पहाड़ों को काटने के लिये प्रयोग में लाये गये विस्फोटक चट्टानों में दरारें पैदा कर देते हैं। इससे भारी वर्षा या बादल फटने के दौरान दरारों में पानी घुसने से भूस्खलन हो जाता है। पिछले वर्षो में हुई प्राकृतिक घटनाओं का कोई ठोस उपाय नहीं मिलने के बाद शासन द्वारा आपदा प्रबंधन का गठन किया गया। वर्तमान में संवेदनशील श्रेणी में आने वाले जिलों में आपदा प्रबंधन के जिला परियोजना अधिकारी नियुक्त किये गये हैं। आपदा प्रबंधन विभाग मुख्य रूप से लोगों को सुरक्षित भवन बनाने के लिये प्रेरित कर रहा है। जिसमें भवन निर्माण के लिये सरिये का प्रयोग करना आवश्यक है। जबकि पहाड़ में अभी तक बने अधिकांश मकान पत्थर और मिट्टी के गारे से बनाये गये हैं।
अहम बात यह है कि इन मकानों की नींव भी सतही होती है। बादल फटने और भूस्खलन की जितनी भी घटनायें अब तक हुई हैं उनमें इसकी जद में आये मकानों का नामोनिशान भी नहीं रहा है। आपदा प्रबंधन विभाग द्वारा चलाये जा रहे जन चेतना कार्यक्रम ने साफ कर दिया है कि इस तरह के मकान सुरक्षित नहीं हैं। ऐसे में यह प्रश्न महत्वपूर्ण हो गया है कि क्या पहाड़ के हर मकान का पुनर्निर्माण जरूरी है। अब समय आ गया है की हम पहाड़ की भोगोलिक परिस्थिती को ध्यान में रख कर ही निर्माण कार्य करे यह भी नहीं की विकास कार्य बंद हो बल्कि ऐसा विकास जिसमे इन विनाशकारी घटनाओं को भी रोका जा सके और पहाड़ की त्रासदी भी रुके.