फिर अपनों से ठगा गया पहाड़

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फिर अपनों से ठगा गया पहाड़

Postby lohanim on Tue Aug 18, 2009 7:48 am

कौन सोचेगा इन पहाड़ों के बारे में

इन पहाड़ों की नियति शायद यही है. दरकते, पहाड़ों को देखकर लगता है की पहाड़ों के शरीर जिस तरह बिखर रहे हैं विकास के अभाव में उसकी आत्मा भी मर रही है. सूनसान होते इन पहाड़ों की आधी से ज्यादा आबादी मैदान को ठिकाना बना चुकी है तो बची आबादी भी वहां का रास्ता पकड़ने को है. कहाँ का विकास और कैसा पर्वतीय राज्य? राजधानी के नाम पैर पहाड़ पहले ही विकास के उन हिमायतिओन से धोखा खा चूका है जो पहाड़ के विकास के नाम पैर गैरसेन का ढोल पीट-पीटकर अपनी राजनीति का गाना चमका चुके थे, और मौका लगते ही उसी पहाड़ की पीठ में चुरा घोंपकर सत्ता के सौदेबाजों के रत्न बन गए. जिस गैरसेन की सवारी कर वह सत्ता की गोद में जा बैठे उसी गैरसेन को उन्होंने पल भर में ही ठोकर मार दी. ये तो होना ही था क्योंकि कुर्सी की भूख और स्वकेंद्रित विकास के आगे फिर पहाड़- वहाड़ के विकास और उससे जुडी बातों का कोई मतलब नहीं रह जाता है. ऐसा नहीं था तो क्यों स्थायी राजधानी दून में ही रखने की बात आने के बाद अपनी राजनीति के माइक में गैरसेन का टेप बजाने वालों के मुंह से चूं भी नहीं निकली?

गैरसेन का मुद्दा केवल एक स्थान विशेष की बात न होकर उस पुरे पहाड़ के विकास के लिए नजीर जैसी बात होती जहाँ के सीधे सपाट लोग मैदान का मुह ताकने को मजबूर हैं. किसी ऐसे जगह राजधानी का क्या मतलब जहां पहले ही सारी सुविधाएं मौजूद हों. अगर पहाड़ का विकास करना एक चुनौती है तो फिर गैरसेन की तरह ही पहाड़ के किसी भी हिस्से का विकास कैसे संभव है. राजधानी बनाने के लिए अगर सारी सुविधाएँ चाहिए तो फिर गैरसेन की बात शुरू ही नहीं होनी चाहिए थी. यानी यह एक ऐसी बात होती कि जैसे आपको सब कुछ बना बनाया चाहिए, पहाड़ में क्या राजधानी इसलिए नहीं बन सकती की वहां वह सब कुछ करने में चुनौतिया बहुत हैं जो एक विकसित स्थान के रूप में सामने आती हैं ? फिर तो पहाड़ ही अपनेआप में एक चुनौती है! पहाड़ में करने को कुछ नहीं है, इसलिए वे लगातार खाली हो रहे हैं. वहां वाही लोग रहने को मजबूर दीखते हैं जिनके पास बाहर जाने का कोई रास्ता नहीं है. अगर में अपने गाँव कि बात करू तो वहां कभी १५० परिवार रहते थे जो अब करीब २५ तक में पहुँच चुके हैं. वहां नौजवानों के लिए करने को कुछ नहीं है. तो विकास के लिए वहां भी कोई संभावना नहीं बचती. वहां का भूगोल भी कठिन है, गाँव तक पहुँचने के लिए सड़क नहीं, पानी का कोई ठोस इंतजाम नहीं, काम चलाऊ अस्पताल, यानी वहां के विकास, संसाधन, आधारभूत सुविधाएं जुटाने और रोजगार के अवसर पैदा करने में चुनौतियाँ बहुत ठीक गैरसेन कि तरह. इसका मतलब यह लगाया जाना चाहिए कि वहां का विकास संभव ही नहीं, गैरसेन के मामले में तो ऐसा ही हुआ. वहां भी संसाधन, आधारभूत सुविधाएं जुटाने में बहूत चुनौतियाँ बताई जा रही हैं, तो फिर यह बात तो पूरे पहाड़ के लिए लागू होती है. यानी पहाड़ का विकास संभव ही नहीं है, कम से कम गैरसेन के मामले के बाद तो हमे शायद यही समझ में आता है.

पहाड़ को आखिर इतना दुरूह क्यों मान लिया गया है? क्यों राजधानी पैर यह बात निकलकर सामने नहीं आई कि वह पहाड़ में ही हो औए ऐसे जगह हो जहां उसे बनाने में चुनौतियाँ बहुत. नहीं, ऐसा संभव नहीं है, क्योंकि कामचौरों के उस तर्क को कौन काट सकता है जिसमे वह पहाड़ में राजधानी कि बात पर या तो उनके दरकने कि बात करते हैं या फिर उन्हें वहां भूकुम्प के झटकों का खतरा रहता है, या रेल, सड़क औए हवाई मार्ग वहां मौजूद नहीं, या फिर वहां पानी, बिजली और बड़ी इमारतें बनाने पर उन्हें फिजूलखर्ची महसूस होती है. पहाड़ के विकास के नाम पर फिजूलखर्ची? यही तो पहाड़ के विकास कि असली तस्वीर है. अरे अगर पहाड़ के साथ ये दुश्वारियां नहीं होती तो फिर विकास के नाम पर अलग राज्य की बात ही कहाँ से आती. सब कुछ इतना आसान होता तो फिर पहाड़ को क्या चाहिए था. पर पहाड़ को नहीं समझने वालों को यह बात समझ नहीं आती होगी इसीलिए उन्होंने गैरसेन को इतना दुरूह बताते हुए उसे राजधानी के लायक समझा ही नहीं, उन्हें तो शायद थाली में पका पकाया चाहिए इसीलिए तो वे उस दुरूह पहाड़ को समझने को तैयार नहीं.

इस मामले में दिक्षित आयोग के मानकों पर ज़रा गौर करें, राजधानी के लिए समतल मैदान पहली शर्त, रेल, सड़क और हवाई मार्गों कि मौजूदगी, पैसा कम खर्च हो और राजनेताओं और नौकरशाहों के लिए दून ही उपयुक्त. तो फिर इसमें पहाड़ के लिए क्या बचता है? पहाड़ के लोगों कि भावना, पहाड़ के विकास कि संभावना और पहाडी राज्य कि परिकल्पना इसमें कहाँ नजर आती है. और इस सब के बीच उन नेताओं औए दलों कि खामोशी भी पहाड़ के चीरहरण जैसी ही दृश्य सामने रखती है जहां पहाड़ विरोधी दूशासनों के स्समने अपने निजी स्वार्थों के चलते वे लाचार नजर आते हैं. ऐसा नहीं होता तो न तो गैरसेन का दावा खारिज होता होता बल्कि वह चौथे स्थान पर धकेला जाता.

अब बात करते हैं पहाड़ के औद्योगिक विकास की. इस पर भी यहाँ कि सरकारों का रुख हमेशा रूखा ही रहा. सरकार यहाँ छोटे उद्योगों के लिए कुछ करने को राजी नहीं है तो यहाँ का नौजवान भी कुछ नहीं सोच सकता क्योंकि इसके लिए उसकी जेब में पैसा नहीं और क़र्ज़ लेने के लिए कोई योजना भी नहीं ताकि वेह कोई कुटीर उद्योग लगा सके. आखिर कैसे संभव है यहाँ का विकास और कैसे बेरोजगार के हाथों में कोई काम मिले. बता दें कि औद्योगिक विकास के लिए हर राज्य में वित्तीय निगम होता है. इसका मकसद राज्य के औद्योगिक विकास के लिए उद्यमिओं को वित्तीय सहायता देकर उन्हें प्रोत्साहन देना था. बता दें कि उत्तराखंड राज्य कि स्थापना के आन्दोला के मूल उद्देश्य पर्वतीय राज्य के निवासियों का आर्थिक एवं सामाजिक उत्थान था. राज्य के बेरोजगार नवयुवकों को रोजगार के अवसर मिलते. भारतीय संसद ने राज्य के निवासियों कि भावना को समझा और अलग राज्य के साथ ही यह भी स्वीकार किया कि राज्य के औद्योगिक विकास के लिए उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम २००० कि धारा ६५ में प्रावधान किया कि उत्तर प्रदेश वित्तीय निगम उत्तराखंड में भी पूर्व कि तेरह काम करता रहेगा. उत्तर प्रदेश में १९५४ में इस निगम कि स्थापना कि गई. गढ़वाल और कुमाऊ मंडल में क्रमशः १९७४ और १९७६ में छेत्रिय कार्यालय बनाया गया. राज्य बनने से पहले निगम ने गढ़वाल में २१२६ उद्योगों के लिए १८४७४.५२ लाख तथा कुमाऊ के लिए १५४१९.२८ लाख के ऋण स्वीकृत किये. निगम ने दुर्गम पर्वतीय अंचलों में कुटीर, लघु और माध्यम इकाइयों को ऋण देकर कुछ हद तक नवयुवकों का पलायन रोका. २००२ तक भी निगम उत्तराखंड में लगने वाले लघु और माध्यम इकाइयों को ऋण देता रहा, मगर फिर राज्य सरकार की मेहरबानी से इसका हश्र भी गैरसेन जैसा ही हो गया. उत्तराखंड सरकार ने राज्य के औद्योगिक विकास के लिए ना तो अलग वित्तीय निगम ही बनाया और ना ही उत्तर प्रदेश वित्तीय निगम को किसी तरह का वित्तीय अंशदान दिया. सिडकुल कि स्थापना तो सरकार ने कर दी मगर पहाड़ में वित्तीय सहायता के लिए किसी भी संस्था कि स्थापना नहीं की. अब हालत ये है कि वित्तीय संस्थान के अभाव में स्थानीय लोगों को उद्योग कि स्थापना के लिए ऋण नहीं मिलने के कारन सरकार कि सिडकुल में उद्योगों को दी गई सुविधाओं का लाभ बड़े औधोगिक घरानों को ही मिल रहा है. यह राज्य स्थापना कि मूल भावना का हनून ही तो है. अब ये तो राज्य के निति नियंता ही बता सकते हैं कि पहाड़ में उन्हें राजधानी भी नहीं चागिये और ना ही वहां विकास कि कोई ठोस निति, तो फिर आखिर लगातार पलायन करते लोगों के बीच वह किन आँखों से खुशहाल राज्य का सपना देख रहे हैं?

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Re: फिर अपनों से ठगा गया पहाड़

Postby dinjos12 on Wed Aug 19, 2009 4:30 am

बहुत सुन्दर लोहानी जी आपने मन की बात बोल दी सायद पहाड़ के कुछ ठेकेदारों को इस बात का अहसास रहेगा की उनने किस प्रकार अपने लोगो को धोखा किया
आशा है आप इसी प्रकार अपनी कलम से इस ज्वाल्लंत मुद्दों को उठाते रहेंगे
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Re: फिर अपनों से ठगा गया पहाड़

Postby Haldwani on Thu Aug 20, 2009 4:05 am

Manoj Ji,

It's quite sensitizing and nicely presented article. In fact, you have perfectly brought out to the surface, some harsh realities of crying 'Pahar'. Please keep writing and posting.
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