TARPAN, SHRADDHA, PITRAPUJAN तर्पण श्राद्ध पित्रपुजन

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TARPAN, SHRADDHA, PITRAPUJAN तर्पण श्राद्ध पित्रपुजन

Postby dinjos12 on Sat Sep 12, 2009 7:46 am

अश्विन कृष्ण पक्ष को पितृपक्ष माना जाता है। धर्मशास्त्र के अनुसार जब कन्या राशि पर सूर्य पहुंचते हैं, वहां से १६ दिन पितरोंकी तृप्ति के लिए तर्पण पिण्डदानादि करना पितरोंके लिए तृप्तिकारक माना गया है।
जब कोई व्यक्ति मर जाता है तो हिन्दू मान्यता के अनुसार जिस प्रकार हम पुराने कपडे उतर कर नए कपडे धारण करते है उसी प्रकार आत्मा भी नया सरीर धारण करती है आत्मा अमर है इसी कारण शरीर छोड़ते ही हिन्दू धर्मं के अनुसार शरीर का अंतिम संस्कार कर दिया जाता है उसके बाद मृत आत्मा की शांति आदि कर उन्हें पिंड दान देकर अपने पूर्वजो से मिला दिया जाता है उसके बाद ही उस आत्मा को हम पितर के रूप में मानते है तथा उनका श्राद्ध आदि करते है
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पितरों की तृप्ति से घर में पुत्र पौत्रादि वंश वृद्धि एवं गृहस्थाश्रम में सुख शांति बनी रहती है। श्राद्ध कर्म की आवश्यकता के सम्बंध में शास्त्रों में बहुधा प्रमाण मिलते हैं। गीता में भी भगवान् लुप्तपिण्डोदकक्रिया कहकर उसकी आवश्यकता की ओर संकेत किए हैं। क‌र्त्तव्याक‌र्त्तव्यके संबंध में शास्त्र ही प्रमाण है। इसलिए पितृ, देव, एवं मनुष्यों के लिए वेद शास्त्र को ही प्रमाण माना गया है,
मानव शरीर के दो भेद हैं। सूक्ष्म तथा स्थूल शरीर। पंच भौति कशरीर मरणोपरान्त नष्ट हो जाता है। सूक्ष्म शरीर आत्मा के साथ उस प्रकार जाता है, जिस प्रकार पुष्प का सुगन्ध वायु के साथ। जिन धर्मग्रन्थों में मरने के बाद गति का वर्णन है, उन्हें स्थूल शरीर के अतिरिक्त सूक्ष्म शरीर मानना पडेगा। सूक्ष्म शरीर को प्रभावित करने वाला सूक्ष्म तत्व ही होता है, जिसको स्थूल मानदण्ड से मापा नहीं जा सकता।
तर्पण
पितरो की आत्मा की शांति व दुसरे लोक में भी उन्हें किसी प्रकार की परेशानी न हो इसके लिए तिल कुश जो आदि से तर्पण किया जाता है तर्पण देव मनुष्य व पितर तीन प्रकार का होता है तर्पण. (देवताओं को तर्पण) पानी की पेशकश उंगलियों का प्रयोग किया जाता है , जबकि संतों के लिए पानी की पेशकश छोटी उंगली के आधार और तीसरी उंगली से किया जाता है और मृतक 'पूर्वजों की आत्माओं कि मध्य के माध्यम से किया जाना चाहिए अंगूठे की और हाथ की पहली उँगली. तर्पण एक मुट्ठी भर पानी (अंजलि) प्रत्येक देवता के लिए ले प्रदर्शन किया जाता है , दो संतों और तीन मृत पूर्वजों आत्माओं के लिए पानी की मुट्ठी भर के लिए पानी की मुट्ठी भर. (पानी की माँ दादी और महान दादी) तीन मुट्ठी भर के मामले में इस्तेमाल किया और अन्य महिलाओं पूर्वजों आत्माओं को पानी में से एक मुट्ठी भर के लिए चाहिए तर्पण के लिए इस्तेमाल किया जाता है
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वेदों में आत्मा वे जायतेपुत्र: अर्थात पुत्र को आत्म-स्वरूप माना गया है। वैसे सजातीय धर्म का भी एक अपना महत्व है। मनुष्य-मनुष्य में, चुम्बक-चुम्बक में, तार-तार में आदि सजातीय धर्म सुदृढ रहता है। अत:इन सजातीय धर्म के आधार पर ही राजनीति में पिता के ऋण को पुत्र को चुकाना पडता है। पुत्र के ऋण को पिता को चुकाना पडता है। जिस प्रकार रेडियो स्टेशन से विद्युत तरंग से ध्वनि प्रसारित करने पर समान धर्म वाले केंद्र से ही उसे सुना जा सकता है, उसी प्रकार इस लोक में स्थित पुत्र रूपी मशीन के भी भावों को श्राद्ध में यथा स्थान स्थापित किए हुए आसन आदि की क्रिया द्वारा शुद्ध और अनन्य बनाकर उसके द्वारा श्राद्ध में दिए गए, अन्नादिकके सूक्ष्म परिणामों को स्थान्तरणकर पितृलोक में पितरोंके पास भेजा जाता है। सामान्य व्यवहार में लोगों द्वारा प्रयुक्त अपशब्द या सम्मान जनक शब्द अगर लोगों के मन को उद्वेलित या प्रसन्न कर सकता है, तो पवित्र वेद मंत्रों से अभिमन्त्रित शुद्ध भाव से समर्पित अन्नादिके सूक्ष्मांशपितृ लोगों को तृप्त क्यों नहीं कर सकता? अवश्य करता है।
dinjos12
 
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Re: TARPAN, SHRADDHA, PITRAPUJAN तर्पण श्राद्ध पित्रपुजन

Postby dinjos12 on Sat Sep 19, 2009 11:42 am

मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध बतलाए गए है,
जिन्हें नित्य,
नैमित्तिक
एवं काम्य
के नाम से जाना जाता है।
यमस्मृतिमें पांच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता है। जिन्हें
नित्य,
नैमित्तिक
काम्य,
वृद्धि और
पार्वण
के नाम से जाना जाता है।
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नित्य श्राद्ध- नित्य का अर्थ प्रतिदिन। अर्थात् रोज-रोज किए जानें वाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं। इस श्राद्ध में विश्वेदेव को स्थापित नहीं किया जाता। अत्यंत आवश्यकता एवं असमर्थावस्थामें केवल जल से इस श्राद्ध को सम्पन्न किया जा सकता है।

नैमित्तिक श्राद्ध- किसी को निमित्त बनाकर जो श्राद्ध किया जाता है, उसे नैमित्तिक श्राद्ध कहते हैं। इसे एकोद्दिष्ट के नाम से भी जाना जाता है। एकोद्दिष्ट का मतलब किसी एक को निमित्त मानकर किए जाने वाला श्राद्ध जैसे किसी की मृत्यु हो जाने पर दशाह, एकादशाह आदि एकोद्दिष्ट श्राद्ध के अन्तर्गत आता है। इसमें भी विश्वेदेवोंको स्थापित नहीं किया जाता।
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काम्य श्राद्ध- किसी कामना की पूर्ति के निमित्त जो श्राद्ध किया जाता है। वह काम्य श्राद्ध के अन्तर्गत आता है।

वृद्धि श्राद्ध- किसी प्रकार की वृद्धि में जैसे पुत्र जन्म, विवाहादिमांगलिक कार्यो में जो श्राद्ध होता है। उसे वृद्धि श्राद्ध कहते हैं। इसे नान्दीश्राद्धया नान्दीमुखश्राद्ध के नाम भी जाना जाता है।

पार्वण श्राद्ध- पार्वण श्राद्ध पर्व से सम्बन्धित होता है। किसी पर्व जैसे पितृपक्ष, अमावास्याअथवा पर्व की तिथि आदि पर किया जाने वाला श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहलाता है। यह श्राद्ध विश्वेदेवसहित होता है।

विश्वामित्रस्मृतितथा भविष्यपुराणमें बारह प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता हैं जिन्हें नित्य, नैमित्तिक काम्य, वृद्धि, पार्वण, सपिण्डन,गोष्ठी, शुद्धयर्थ,कर्माग,दैविक, यात्रार्थतथा पुष्ट्यर्थके नामों से जाना जाता है। यदि ध्यान पूर्वक देखा जाय तो इन बारहों श्राद्धों का स्वरूप ऊपर बताए गए पांच प्रकार के श्राद्धों में स्पष्ट रूप से झलकता है।

सपिण्डनश्राद्ध- सपिण्डनशब्द का अभिप्राय पिण्डों को मिलाना। दरअसल शास्त्रों के अनुसार जब जीव की मृत्यु होती है, तो वह प्रेत हो जाता है। प्रेत से पितर में ले जाने की प्रक्रिया ही सपिण्डनहै। अर्थात् इस प्रक्रिया में प्रेत पिण्ड का पितृ पिण्डों में सम्मेलन कराया जा सकता है। इसे ही सपिण्डनश्राद्ध कहते हैं।
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गोष्ठी श्राद्ध- गोष्ठी शब्द का अर्थ समूह होता है। जो श्राद्ध सामूहिक रूप से या समूह में सम्पन्न किए जाते हैं। उसे गोष्ठी श्राद्ध कहते हैं।

शुद्धयर्थश्राद्ध- शुद्धि के निमित्त जो श्राद्ध किए जाते हैं। उसे शुद्धयर्थश्राद्ध कहते हैं। जैसे शुद्धि हेतु ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए।

कर्मागश्राद्ध- कर्मागका सीधा साधा अर्थ कर्म का अंग होता है, अर्थात् किसी प्रधान कर्म के अंग के रूप में जो श्राद्ध सम्पन्न किए जाते हैं। उसे कर्मागश्राद्ध कहते हैं। जैसे- सीमन्तोन्नयन, पुंसवन आदि संस्कारों के सम्पन्नता हेतु किया जाने वाला श्राद्ध इस श्राद्ध के अन्तर्गत आता है।

यात्रार्थश्राद्ध- यात्रा के उद्देश्य से किया जाने वाला श्राद्ध यात्रार्थश्राद्ध कहलाता है। जैसे- तीर्थ में जाने के उद्देश्य से या देशान्तर जाने के उद्देश्य से जिस श्राद्ध को सम्पन्न कराना चाहिए वह यात्रार्थश्राद्ध ही है। यह घी द्वारा सम्पन्न होता है। इसीलिए इसे घृतश्राद्धकी भी उपमा दी गयी है।

पुष्ट्यर्थश्राद्ध- पुष्टि के निमित्त जो श्राद्ध सम्पन्न हो, जैसे शारीरिक एवं आर्थिक उन्नति के लिए किया जाना वाला श्राद्ध पुष्ट्यर्थश्राद्ध कहलाता है।

वर्णित सभी प्रकार के श्राद्धों को दो भेदों के रूप में जाना जाता है। श्रौत तथा स्मा‌र्त्त।पिण्डपितृयागको श्रौतश्राद्धकहते हैं तथा एकोद्दिष्ट पार्वण आदि मरण तक के श्राद्ध को स्मा‌र्त्तश्राद्ध कहा जाता है।

श्राद्धैर्नवतिश्चषट्-धर्मसिन्धुके अनुसार श्राद्ध के 96अवसर बतलाए गए हैं। एक वर्ष की अमावास्याएं(12) पुणादितिथियां (4),मन्वादि तिथियां (14)संक्रान्तियां (12)वैधृति योग (12),व्यतिपात योग (12)पितृपक्ष (15), अष्टकाश्राद्ध(5) अन्वष्टका(5) तथा पूर्वेद्यु:(5) मिलाकर कुल 96अवसर श्राद्ध के हैं।

Source : Dainik Jagran
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